रेसिंग ट्रैक पर जब आपकी शुरुआत बेहद धीमी हो... और बीच में आप तेज़ तर्रार बनकर दौड़े... सबको पीछे छोड़ दें... लेकिन फिनिशिंग लाइन के करीब आने पर फिर रफ़्तार कम कर दें... तो अंजाम क्या होगा... समझा जा सकता है
किताब की कहानी को पर्दे तक लाना आसान नहीं होता... और अगर कहानी सत्य घटना पर हो और 80 दशक पुरानी हो तो... ये काम और मुश्किल हो जाता है... फिर भी फिल्मी जगत में ऐसी चुनौतियों को कई बार प्रोड्यूसर्स और डायरेक्टर्स ने स्वीकार किया है... आशुतोष गोवारिकर ने ‘लगान’ में जो आज़ादी की कहानी... मसाले के साथ परोसी थी... उसी तरह ‘खेले हम जी जान से’ को भी उन्होने कुछ मसालों से भरने की कोशिश की है... आशु अपनी लम्बी अवधि की फ़िल्मों के लिए जाने जाते हैं फिर भी उन्होने खींचते-खींचते अपनी फ़िल्म को 2 घंटे 48 मिनट तक ही ले जा सके... हालांकि अगर ये फ़िल्म इससे आधे वक़्त में दिखाई जाती तो कहानी पूरी हो सकती थी... हर किरदार के साथ भरपूर न्याय हो सकता था... फ़िल्म को रफ़्तार मिलती और दर्शकों को बांधकर भी रखती... लेकिन ऐसा हुआ नहीं....
मानिनी डे की किताब डू एंड डाई - द चटगांव अपराइजिंग 1930-34 से 64 बच्चों को आज़ादी के वीरों के तौर पर पेश करना चुनौतीपूर्ण था और आशु ने ये रिस्क उठाया और सभी किरदारों को माकूल मौका देकर जो काम किया है... वो वाकई सलाम करने लायक है... फ़िल्म में कोई किरदार किसी पर हावी नहीं होता... हर किसी से उम्दा अदाकारी निकलवाना ही निर्देशक की पहचान को बनाता है... और इसीलिए आशु की बॉडीवुड में एक अलग पहचान है...
1930 की कहानी चटगांव की है जो कभी हिंदुस्तान में हुआ करता था... अब बंग्लादेश में है... और वहां अब ऐसी लोकेशन नहीं बची जहां ‘खेले हम जी जान से’ को जीवन मिल पाता... आशु ने गोवा में फ़िल्म शूट की... लोकेशन, कोलाच से लेकर कैमरे तक का काम लाजवाब है... तकनीकी तौर पर फ़िल्म के लिए आशुतोष गोवारिकर बधाई के पात्र हैं... लेकिन अहम सवाल है व्यवसाय का... फ़िल्म बिजनेस कर पाएगी कि नहीं?
थियेटर में आधी से ज़्यादा सीटें खाली होने की वजह है फ़िल्म के प्रोमो और पोस्टर्स का बेदम होना... कोई असरदार डायलॉग नहीं है... पुरानी आज़ादी की कहानी पर बनी फ़िल्मों की तरह वंदेमातरम् के नारे पर आज के दर्शक थियेटर तक नहीं जानेवाले... और जो थियेटर पहुंचते हैं वो दूसरों को फ़िल्म देखने की सलाह तो कतई नहीं देनेवाले... क्योंकि बचीखुची कसर इंटरवल तक में पूरी हो जाती है...
जिस तरह से फ़िल्म की शुरुआत होती है और आधी फ़िल्म पूरी होने तक कहानी बिरबल की खिचड़ी की तरह पकती ही रहती है... वो दर्शकों को रास नहीं आई... मेरी आगेवाली सीट पर बैठे युवा तो कमेंट पर कमेंट किये जा रहे थे... एक-दूसरे को कोस रहे थे... और बार-बार यही कह रहे थे कि ‘अब तो टॉर्चर बंद करो’ । लेकिन इंटरवल के बाद से फ़िल्म जो रफ़्तार पकड़ती है... और थ्रिलर सीन्स आते हैं तो दर्शक उसका मज़ा लेते हैं... फिर क्लाइमेक्स तक जाते-जाते रफ़्तार फिर धीमी पड़ जाती है...
फ़िल्म के आख़िर में वंदेमातरम् गाने पर जो फोटोग्राफ्स के साथ स्टारकास्ट को दिखाया जाता है... वो हॉल से बाहर जाते दर्शकों को रोक देता है... समझा जा सकता है कि एडिटिंग में कितनी बड़ी ग़लती की गई... अगर ये फ़िल्म रिवर्स गियर में चलती तो शायद दर्शकों को बांधकर रख सकती थी... अगर फोटोग्राफ्स पर स्टारकास्ट को ‘वंदेमातरम्’ के गाने पर फ़िल्म की शुरुआत में दिखा देते तो शुरुआत में ही दर्शकों में देशभक्ति का जोश भर जाता... और वो फ़िल्म के लिए बेहद कारगर होता...
अभिषेक बच्चन का किरदार भी फ़िल्म की शुरुआत की तरह स्लो रहता है लेकिन बाद में उभरकर सामने आता है... दीपिका पादुकोण से ऐसी उम्मीद नहीं थी... दर्शक बार-बार कमेंट कर रहे थे “भाभी जी सिर्फ एक इमोशन दे दो प्लीज़”... बाकी कलाकारों ने अच्छा काम किया और निर्देशक ने उनसे अच्छा काम लिया भी...
कुल मिलाकर फ़िल्म अच्छी है, देखने लायक है, लेकिन ये एक कमर्शियल फ़िल्म नहीं है। ये फ़िल्म अवॉर्ड जीत सकती है। आशु को इस साल का बेस्ट डायरेक्टर का पुरस्कार दिया जा सकता है लेकिन एक अच्छी फ़िल्म को चलने के लिए उसका सिर्फ अच्छा होना ज़रुरी नहीं होता... उसका मनोरंजक होना ज़रुरी होता है...
3.5 Stars, Decent Watch, Can wait for TV Premier
बढ़िया समीक्षा है, आप फिल्म देखने की सलाह दे रहे हैं और कह रहे हैं कि बोरिंग है, देखनी होगी
ReplyDeleteचलिए आपकी सलाह पर अमल करते हैं... फिल्म का टीवी पर आने तक इंतजार कर लेते हैं...।
ReplyDeleteभाई बहुत सही अच्छा लगा आपकी समीक्षा पड़ कर । उम्मीद करता हु इसी ही समीक्षाए और पड़ने को मिलेगी और मुझे भी जरुरत है मेरी गलतियों को ढूढने की इसमें मेरी मदद करे .कृपया मेरा ब्लॉग पड़ कर अपने बहुमूल्य सुझाव भी दे ।
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